उद्धव ठाकरे ने नासमझ दोस्त चुना : परिणाम, दो फाड़ हो गई शिवसेना

शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को संजय राउत पसंद थे। पार्टी ने वर्ष 2004 में पहली बार राउत को राज्यसभा भेजा और तब से वह लगातार चौथी बार जीतकर संसद के ऊपरी सदन में बने हुए हैं। लेकिन आज पार्टी का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है।

उद्धव ठाकरे ने नासमझ दोस्त चुना : परिणाम, दो फाड़ हो गई शिवसेना
कहते हैं नासमझ दोस्त से समझदार दुश्मन अच्छा होता है, लेकिन शिवसेना प्रमुख ने इस युक्ति से कोई सीख नहीं ​ली। उन्होने नासमझ दोस्त का चुनाव किया, जिसका परिणाम है कि आज शिवसेना दो फाड़ हो चुकी है। 

27 जून 22। 'बीजेपी वाले चू** हैं, वो ***गिरी करते हैं', 'बाला साहेब ठाकरे के नाम पर नहीं अपने बाप के नाम पर पार्टी बनाओ', जैसी भद्दी भाषा के इस्तेमाल से लेकर 'कब तक छिपोगे गुवाहाटी में, आना ही पड़ेगा चौपाटी में', 'शिवसैनिक सड़कों पर हैं, बस इशारे का इंतजार है' की धमकी तक, आए दिन खुले मंचों से ऐसे बयान देते रहते हैं। ऊपर से कहते हैं, 'तेरा घमंड तो चार दिन का है पगले, हमारी बादशाही तो खानदानी है!' पता है ये कौन हैं? माननीय सांसद हैं- देश की संसद के उच्च सदन राज्यसभा के। नाम है संजय राउत। वही संजय राउत जो एक कार्टून मैगजीन 'मार्मिक' के जरिए बाल ठाकरे और उनके छोटे भाई श्रीकांत के संपर्क में आए और आज शिवसेना की चूलें हिला दीं। आप कहेंगे कि चूलें तो बागी विधायकों और उनके नेता एकनाथ शिंदे ने हिलाईं। आप गलत नहीं हैं, लेकिन कुछ समझने की जरूरत है। आइए संजय राउत के बाल ठाकरे के संपर्क में आने से लेकर अब तक की भूमिकाओं पर एक नजर डालते हैं।

— बीजेपी के साथ युति तोड़कर विरोधियों से बनवाई अघाड़ी
कई स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो आज शिवसेना का जो हाल है, उसके 90 प्रतिशत जिम्मेदार अकेले संजय राउत हैं। उनका कहना है कि सामना में लेख लिखते-लिखते संजय राउत ने 2019 विधानसभा चुनाव के बाद महाविकास अघाड़ी (MVA) सरकार की जो पटकथा लिखी, उसका अंत शिवसेना के बिखराव के साथ हो रहा है। पिछले महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला था लेकिन शिवसेना ने अपना मुख्यमंत्री बनाए जाने की जिद्द पर डटकर बीजेपी से नाता तोड़ लिया। कहा जाता है कि संजय राउत ने पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे को भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी शर्त नहीं मानती है तो कांग्रेस-एनसीपी के समर्थन से उनके मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब वो पूरा करवाएंगे। राउत ने 106 सीटें जीतने वाली बीजेपी को दरकिनार करके 56 सीटों वाली शिवसेना के अध्यक्ष को मुख्यमंत्री तो बनवा दिया, लेकिन उसकी बड़ी कीमत पार्टी को चुकानी पड़ रही है।

— कड़े और कई बार भद्दे बयान देते हैं संजय राउत
शिवसेना के कुल 55 विधायकों में दो तिहाई से ज्यादा बागी हो चुके हैं। यह आंकड़ा पार्टी तोड़ने के लिए जरूरी दल बदल कानून की शर्तें पूरा करने को काफी है। कहा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे की सरकार तो जा चुकी है, बस औपचारिकता का इंतजार है, उनके सामने बड़ी चुनौती तो शिवसेना को बचाना है। एकनाथ शिंदे गुट ने शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के नाम पर अपनी नई पार्टी का नाम रखने का फैसला किया है, शिवसेना- बाला साहेब ठाकरे। बाला साहेब मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पिता थे, इस कारण संजय राउत कह रहे हैं कि शिंदे अपने बाप के नाम पर पार्टी का नाम रखें।

— बागी विधायकों के खिलाफ आग उगल रहे हैं राउत
राउत लंबे समय से लिखने-पढ़ने के पेशे में हैं तो उनके पास शब्दों की कमी नहीं है, फिर भी वो लगातार ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं जिन्हें कम-से-कम उनके स्तर का तो नहीं ही कहा जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि किसी से स्तर की अपेक्षा और उसका वास्तविक स्तर, दोनों अलग-अलग चीजें हैं। संजय राउत के बयानों पर गौर करेंगे तो पता चलेगा कि उन्होंने अपने अनियंत्रित बयानों से शिवसेना का जितना नुकसान करवाया, उतना शायद बीजेपी से संबंध तोड़कर धुर विरोधी दलों, कांग्रेस और एनसीपी से नाता जोड़ने के कारण भी नहीं हुआ। राउत का यह बयान ही देख लीजिए, 'कब तक छिपोगे गुवाहाटी में, आना ही पड़ेगा चौपाटी में।' भला यह धमकी नहीं है तो और क्या माना जा सकता है?

— बाल ठाकरे के संपर्क में कैसे आए थे संजय राउत
61 वर्षीय संजय राउत महाराष्ट्र के रायगढ़ जिला में अलीबाग के पास चौंदी गांव से आते हैं। उन्होंने 1980 के दशक में एक अंग्रेजी दैनिक अखबार के सर्कुलेशन और मार्केटिंग डिपार्टमेंट में काम शुरू किया था। बाद में उन्होंने साप्ताहिक अखबार लोकप्रभा में बतौर क्राइम और पॉलिटिक्स रिपोर्टर के तौर पर नौकरी जॉइन की। राउत ने साप्ताहिक कार्टून मैगजीन 'मार्मिक' में भी काम किया जिसे बाल ठाकरे ने वर्ष 1960 में अपने छोटे भाई श्रीकांत के साथ मिलकर शुरू किया था। इसी मैगजीन में मुंबई और आसपास के इलाकों में मराठा आबादी की समस्याओं को उकेरा जाता था। मराठी मानुष की इन्हीं समस्याओं से चिंतित होकर बाल ठाकरे ने 1966 में शिवसेना की स्थापना कर दी।

इधर, मार्मिक मैगजीन में काम करते के कारण संजय राउत का संपर्क बाल ठाकरे और श्रीकांत से हो ही गया था। वर्ष 1984 में संजय राउत पहली बार प्रमोद नावलकर, दत्ताजी साल्वी और वामनराव महादिक जैसे शिवसेना के बड़े नेताओं के साथ मंच पर दिखे। मौका था मार्मिक मैगजीन के सालाना समारोह का। बाल ठाकरे के छोटे भाई एक प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट और म्यूजिक कंपोजर थे। मराठी फिल्म में उनका पहला गाना मोहम्मद रफी ने गाया था। राउत ने श्रीकांत से नजदीकी गांठ ली। वो उन्हें 'पापा' कहने लगे। धीरे-धीरे शिवसेना में राउत का कद इतना बढ़ गया कि वो बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे और श्रीकांत के पुत्र राज ठाकरे के बीच अनबन को दूर करने में अपनी भूमिका निभाने लगे।

— सामना के संपादकीय से बरसाते हैं अंगारे
1989 में शिवसेना ने मराठी दैनिक 'सामना' का प्रकाशन शुरू किया। वरिष्ठ पत्रकार अशोक पाद्बिद्री इस मुखपत्र के कार्यकारी संपादक बनाए गए। तीन वर्ष बाद 1992 में वो हटे तो संजय राउत को उनकी जगह मिल गई। बाल ठाकरे सामना के संपादक हुआ करते थे। लेकिन संपादकीय लिखा करते थे राउत जिसे बाल ठाकरे का मत माना जाता था। ठाकरे को राउत पसंद थे। पार्टी ने वर्ष 2004 में पहली बार राउत को राज्यसभा भेजा और तब से वह लगातार चौथी बार जीतकर संसद के ऊपरी सदन में बने हुए हैं।

— राउत के लेखों से बैकफुट पर आती रही शिवसेना
हालांकि, राउत के लेखन से पार्टी कई मौकों पर बैकफुट पर भी आई। राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) ने वर्ष 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 13 सीटें जीतीं और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के कई उम्मीदवारें के वोट काटकर हरा दिए तो सामना में संपादकीय लिखकर मुंबई के मराठी मानुष पर पीठ में छुरा घोंपने का आरोप मढ़ा गया। इसकी कड़ी आलोचना होने लगी तो बाल ठाकरे को सफाई देनी पड़ गई। फिर, 1 मई 2014 को प्रकाशित संपादकीय में लोकसभा चुनाव के वक्त मुंबई में रहने वाले गुजराती भाषी वोटरों पर तरह-तरह की लांछनाएं लगाई गईं। गुजराती समुदाय में नाराजगी से शिवसेना की फजीहत होने लगी तो संजय राउत को कुछ दिनों के लिए पार्टी प्रवक्ता के पद से हटा दिया गया।

— 1989 में बीजेपी से गठबंधन के बाद भी नहीं बदला राउत का मिजाज
बीजेपी और शिवसेना के बीच गठबंधन की चर्चा 1984 में हुई और पांच साल बाद 1989 में दोनों दलों ने हाथ मिला भी लिया। लेकिन राउत कभी बीजेपी को अपना सहयोगी दल नहीं मानते हुए उसे ऐसा प्रतिस्पर्धी मानते रहे जिसका काम तमाम करना जरूरी है। शिवसेना के अंदर भी उनकी बीजेपी से दूरी और एनसीपी चीफ शरद पवार से नजदीकियों की चर्चा आम हुआ करती थी। राउत ने 2009 के लोकसभा चुनाव के लिए शिवसेना और एनसीपी के बीच गठबंधन करवाने की खूब कोशिश की, लेकिन वो सफल नहीं रहे।

— 2014 से तो और उग्र हो गए राउत
2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब संजय राउत का बीजेपी पर हमला बढ़ गया। तब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी को शिवसेना से अलग होकर चुनाव लड़ना पड़ा था। चुनाव के बाद बीजेपी को शिवसेना से ज्यादा सीटें आईं, तब शिवसेना को दोबारा गठबंधन में लौटना पड़ा। देवेंद्र फडणवीस युति सरकार के मुख्यमंत्री बने, फिर भी सामना में बीजेपी के खिलाफ आग उगलने वाले लेख लिखे जाते रहे।

— शिवसेना को बदलने में राउत की सबसे बड़ी भूमिका
2019 के विधानसभा चुनावों के बाद बीजेपी के हिस्से 106 सीटें जबकि शिवसेना को सिर्फ 56 सीटें आईं। फिर भी शिवसेना अपना मुख्यमंत्री बनाने पर अड़ गई। स्वाभिवक तौर पर बीजेपी ने शिवसेना की शर्त नहीं मानी और दोनों का गठबंधन टूट गया। संजय राउत ने गठबंधन तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई और उतनी ही भूमिका निभाई शिवसेना का कांग्रेस-एनसीपी के साथ महाअघाड़ी गठबंधन (MVA) बनाने में। इन भूमिकाओं ने उद्धव ठाकरे और उनके करीबियों के बीच तो संजय राउत का कद तो काफी बढ़ा दिया लेकिन बाकी शिवसैनिक उन्हें संदेह की नजर से देखने लगे। फिर बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर उनके बढ़ते हमलों जबकि कांग्रेस-एनसीपी के अजेंडों के घोर समर्थन और हिंदुत्व के मुद्दों पर उनके अप्रत्याशित बयानों ने शिवसैनिकों के एक बड़े वर्ग का संदेह गहरा कर दिया।

— शिवसेना के यूटर्न लेने से समर्थकों में भारी नाराजगी
इधर, जमीन पर भी एमवीए सरकार के कामकाज और खासकर शिवसेना की बदली नीतियों के प्रति नाराजगी भांपी जाने लगी। नतीजा सबके सामने है। अब शिवसेना के करीब 40 विधायक पार्टी से अलग राह पकड़ चुके हैं। सोशल मीडिया पर व्यंग्य भी चल रहा है कि शिवसेना विधायकों की लिस्ट में कुछ दिनों बाद सिर्फ आदित्य ठाकरे और सुनील राउत का नाम ही बच जाएगा। संजय के छोटे भाई सुनील मुंबई के भांडुप से दूसरी बार विधायक बने हैं। इस हाल के लिए ना केवल बागी विधायक बल्कि पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक के साथ-साथ स्वतंत्र विश्लेषक भी संजय राउत को बहुत ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं। वो अपनी दलील में कहते हैं कि राउत ने शिवसेना में रहते हुए शरद पवार का हित साधते रहे हैं। उन्होंने शिवसेना को आज इस हाल में पहुंचा दिया है जिससे शरद पवार से ज्यादा शायद ही कोई खुश होगा।

— आखिर संजय राउत शिवसेना के हितैषी हैं या...?
इतना होने के बावजूद संजय राउत के तेवर नरम नहीं पड़ रहे हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि जब गुवाहाटी से 40 बागी विधायकों के शव मुंबई आएंगे तब हम सीधे पोस्टमार्टम के लिए मुर्दाघर भेजेंगे। उन्होंने बागियों को भैंसा बताते हुए कहा कि गुवाहाटी में एक मंदिर है जहां भैंसों की बलि दी जाती है। ये 40 भैंसें वहां बलि देने के लिए गए हुए हैं। उन्होंने कहा था- शिवसैनिक सड़कों पर हैं, इशारे भर का इंतजार है। इस बयान के बाद बागी विधायकों के घरों और दफ्तरों पर हमले होने लगे। संजय राउत कह रहे हैं कि बागी विधायक कब तक गुवाहाटी में रहेंगे, मुंबई तो आना ही होगा। वो धमकी भरे लहजे में कह रहे हैं कि बागियों को मुंबई आने की हिम्मत नहीं है। संजय राउत और क्या-क्या कहेंगे, यह सुनने-समझने की बात है। अगर आप संजय राउत को लेकर कोई निर्णय तक नहीं पहुंचें हैं तो गौर करते रहिए और इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश कीजिए- आखिर संजय राउत शिवसेना के हितैषी हैं या...?

कहते हैं नासमझ दोस्त से समझदार दुश्मन अच्छा होता है, लेकिन शिवसेना प्रमुख ने इस युक्ति से कोई सीख नहीं ​ली। उन्होने नासमझ दोस्त का चुनाव किया, जिसका परिणाम है कि आज शिवसेना दो फाड़ हो चुकी है।