जमीन के नीचे है जादुई नेटवर्क, इसके बिना पेड़ों का जीवित रहना असंभव

हमारे पैरों के नीचे सूक्ष्म कवकों का एक विशाल नेटवर्क मौजूद है जिसे वूड वाइड वेब (wood wide web)भी कहा जाता है। इसकी मदद से पेड़ अपने पोषक तत्वों और सूचनाओं को दूसरे पेड़ पौधों से बांटते हैं।

जमीन के नीचे है जादुई नेटवर्क, इसके बिना पेड़ों का जीवित रहना असंभव
धरती पर जीवन को बनाये रखने में ये कवक करोड़ों सालों से मदद कर रहे हैं। हमारे पैरों के नीचे जो इनका विशाल नेटवर्क है उसे खत्म करने का मतलब उन जीवों को खतरे में डालना है जिनपर हमारा अस्तित्व निर्भर है।

22 जुलाई 22। जमीन के नीचे अगर फफूंद का विशाल नेटवर्क (There is a magical network under the ground) काम ना करे तो पेड़ों के लिए जिंदा रहना संभव नहीं होगा। ये अतिसूक्ष्म फफूंद या कवक हमारी नजरों के सामने नहीं आते, लेकिन इनके तंतु पूरी मिट्टी में किसी इंटरनेट के जाल की तरह फैले होते हैं और यह पेड़ पौधों को एक दूसरे से जोड़ने का काम करते हैं ठीक वैसे ही जैसे इंटरनेट हमारे कंप्यूटरों को जोड़ता है।

वूड वाइड वेब : पेड़ पौधे इस तंत्र का इस्तेमाल पानी, नाइट्रोजन, कार्बन और दूसरे पोषक तत्वों के लेन देन में करते हैं, इसके साथ ही वो इसके जरिए किसी संभावित खतरे की चेतावनी पहले हासिल कर लेते हैं। वैज्ञानिक इस तंत्र को "वूड वाइड वेब" भी कहते हैं।

सूक्ष्म कवकों का नेटवर्क इन पेड़ों के आसपास करीब 40 करोड़ सालों से हैं। इकोलॉजिस्ट थॉमस क्राउथर के मुताबिक ये एक तरह से "जंगल के दिमाग" की तरह काम करते हैं जो पूरे इकोसिस्टम को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी उठाता है। क्राउथर का कहना है, "माइकोरिजाल कवक दुनिया के 90 फीसदी से ज्यादा पेड़ों के काम करते रहने के लिए बेहद जरूरी हैं। एक का काम दूसरे के बगैर नहीं चलेगा।" क्राउथर वैज्ञानिकों की उस टीम में शामिल हैं जो वूड वाइड वेब का पहला वैश्विक नक्शा बनाने के काम में जुटा है।

यह नेटवर्क काम कैसे करता है?
पेड़ और पौधों के बीच एक सहजीवी रिश्ता होता है। इसमें माइकोरिजाल कवक उनके आसपास और जड़ों के अंदर शामिल होते हैं। पौधे अपने इन कवक सहजीवियों को कार्बन देते हैं और उसके बदले में उनसे फॉस्फोरस और नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्व लेते हैं। कवकों को यह पोषक तत्व धरती से हासिल होता है।

सिर्फ इतना ही नहीं पेड़ पौधे जमीन के भीतर के इस विशाल नेटवर्क का इस्तेमाल कर एक दूसरे से संपर्क करते हैं। इनकी मदद से वो सूचनाओं, पोषक तत्वों, मिठास और पानी नेटवर्क में शामिल उन पौधों तक पहुंचाते हैं जिन्हें इसकी ज्यादा जरूरत होती है।

क्राउथर का कहना है, "जो पेड़ पोषक तत्वों के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं उन्हें अकसर इस नेटवर्क का फायदा मिलता है क्योंकि कवक पोषक तत्वों को इन संघर्षरत पेड़ों में बांट देते हैं या फिर उन पेड़ों को जिन्हें कीड़ों ने भारी नुकसान पहुंचाया हो। यही संपर्क पूरे सिस्टम को चलाता है।"

जब कोई अंकुर इस नेटवर्क में शामिल होता है तो उन्हें भी वयस्क पेड़ों से पोषक तत्वों और पानी की खुराक मिल सकती है। इससे उन्हें विकसित होने में और तनाव की स्थिति में खुद को सहनशील बनाने में मदद मिलती है। जिन पेड़ों की जीवनलीला खत्म हो रही होती है वो भी इस नेटवर्क का इस्तेमाल कर अपने पोषक तत्वों को पड़ोसी पेड़ों तक या पौधों तक  पहुंचा देते हैं।

पेड़ का कोई पड़ोसी अगर हमले का शिकार होता है तो इसी नेटवर्क की मदद से उन्हें इस खतरे की चेतावनी मिल जाती है। कैटरपिलर या फिर इसी तरह के दूसरे कीड़ों के हमले की स्थिति में पेड़ अपनी सुरक्षा के लिए रक्षात्मक रसायन भी पहले से ही तैयार करने में जुट जाते हैं।

पेड़ की मौत के साथ कवक भी मर जाते हैं
माइकोरिजाल कवकों का नेटवर्क इकोसिस्टम की मदद करता है और जंगलों को ज्यादा लचीला बनाता है। ये बड़ी मात्रा में कार्बन को सोखते हैं। ये गर्मी को रोक कर रखने वाले कार्बन डाइ ऑक्साइड को जमीन के भीतर ही दबाये रखते हैं। हालांकि खेती के विस्तार, रासायनिक उर्वरकों के प्रदूषण और जंगलों की कटाई ने इन सूक्ष्मजीवों के नेटवर्क को खतरे में डाल दिया है।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक करीब 17.8 करोड़ हेक्टेयर जंगल पिछले तीन दशकों में खत्म हो चुका है। इतनी जमीन पर फ्रांस जैसे तीन देश बस जाएंगे। जब पेड़ों को काटा जाता है तो जमीन के भीतर कवक भी खत्म हो जाते हैं। रिसर्चरों ने देखा है कि पेड़ों की कटाई से जमीन में मौजूद कवकों का 95 फीसदी तक हिस्सा खत्म हो जाता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान की वजह से भी लंबे समय तक कार्बन को बाध कर रखने वाले कवकों की जगह ऐसे कवक की किस्म आ रही है जो वातावरण में कार्बन छोड़ते हैं।

धरती पर जीवन को बनाये रखने में ये कवक करोड़ों सालों से मदद कर रहे हैं। हमारे पैरों के नीचे जो इनका विशाल नेटवर्क है उसे खत्म करने का मतलब उन जीवों को खतरे में डालना है जिनपर हमारा अस्तित्व निर्भर है।

46 फीसदी प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं
येल यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने पता लगाया है कि पृथ्वी पर लगभग 3 लाख करोड़ पेड़ मौजूद हैं। इसमें पेड़ों की करीब 60,000 प्रजातियां हैं। इनमें से आधी से ज्यादा प्रजातियां ऐसी हैं जो सिर्फ किसी एक देश में पाई जाती हैं। ब्राजील, कोलंबिया और इंडोनेशिया में सबसे ज्यादा पेड़ों की प्रजातियां हैं। बुरी खबर यह है कि मानव सभ्यता की शुरुआत के वक्त जितने पेड़ मौजूद थे उनमें से 46 फीसदी लुप्त हो चुके हैं।